लखनऊ
के इतिहास का
शायद सबसे महत्वपूर्ण
युद्ध चिनहट की
लड़ाई है जो
३०
जून 1857 को चिनहट के पास इस्माइल गंज
में लड़ा गया था। उससे पहले लखनऊ के इतिहास में शायद कभी इतना महत्वपूर्ण युद्ध नहीं
लड़ा गया अंग्रेज़ों ने इस युद्ध को इतिहास से करीब करीब गायब कर दिया क्यूंकि ये उनकी
सबसे शर्मनाक हार थी वह भी उस शहर में जिसके राजा को वो नाचने गाने वाला और कायर करार
कर के हटा चुके थे। वो अपनी इस हार से स्तब्ध थे और कभी भी पूरी तरह से इसको स्वीकार
नहीं कर पाए की भारतीय उनको उखाड़ फेंकने के लिए एक हो चुके थे और पीछे हटने वाले नहीं
थे।
इस
युद्ध में एक तरफ ब्रिटिश फ़ौज थी जो की कुछ ही दिन पहले रूस को क्रीमिया की लड़ाई में
हरा के लौटी थी और दुनिया की सबसे शक्तिशाली सेना थी और दूसरी तरफ हिंदुस्तानी स्वतंत्रता
सेनानी थे जिनको कोई विशेष प्रशिक्षण नहीं मिला था हालाँकि उनके सेनापति बरकत अहमद
ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना के एक बहुत अनुभवी अफसर रह चुके थे और युद्ध की सभी बारीकियों
को समझते थे। इसके विपरीत ब्रिटिश सेना सर
हेनरी लॉरेंस के नेतृत्वा में लड़ रही थी जोकि बहुत अनुभवी थे लेकिन वो काफी सालोँ से
फौजी ज़िन्दगी से अलग थे और एक सिविलियन अफसर बन चुके थे। हेनरी लॉरेंस का स्वास्थ भी ठीक नहीं रहता था और
मौसम तपती हुई जून की गर्मी का था जो की अंग्रेज़ों के लिए जानलेवा साबित हुआ । २७ जून
यानि तीन दिन पहले अँगरेज़ कानपुर हार चुके थे और नाना साहब के सामने आत्मसमर्पण कर
चुके थे इस घटना से भी लखनऊ के क्रांतिकारियों को लगा की ये शायद सही मौका होगा अंग्रेज़ों
को उखाड़ फेंकने का ।
अपने
कुछ जूनियर ऑफिसर्स जैसे की मार्टिन गब्बिन्स जो की गुप्तचर विभाग का मुखिया था, के
दबाव डालने पर हेनरी लॉरेंस ने लखनऊ के बहुत नज़दीक आ गयी एक क्रांतिकारियों की सेना
पर हमले की तैयारी की। इस छोटी सी फ़ौज जिसमे करीब ४०० से ६०० लोग ही थे फैज़ाबाद रोड
से चिनहट की और आगे बढ़ी लेकिन इस्माइल गंज पहुँचने पर इस फ़ौज पर एक ज़बरदस्त हमला हुआ
क्यूंकि भारतीय फ़ौज के पास काफी तोपें थी और वो अँगरेज़ सेना से दस गुना ज़्यादा बड़ी
थी जिसमे बंगाल आर्मी के प्रशिक्षित और पुराने सैनिक और तोपखाने की अच्छी जानकारी रखने
वाले तोपची भी थे। कुछ ही समय में इतनी ज़बरदस्त गोली बारी हुई की अँगरेज़ सेना के पेर
उखड गए क्यूंकि क्रन्तिकारी ब्रिटिश सेना की तरह ही किलाबंदी करके गोली चला रहे थे। उनके पास एक दर्जन तोपें भी थी तत्कालीन प्रत्यक्षदर्शी
तो यहाँ तक कहते हैं की उसमे नीली वर्दी पहने रूस के सैनिक भी थे क्यूंकि रूस क्रिमीआ
की लड़ाई से खार खाया हुआ था और अंग्रेज़ों से बदला लेना चाहता था।
हेनरी
लॉरेंस बहुत पहले ही समझ गए की वो बुरी तरह
से हारने वाले हैं इसलिए उन्होंने जॉन इंग्लिस के हाथ में कमान सौंप कर अपनी बची खुची
फ़ौज को सुरक्षित वापस रेजीडेंसी पहुँचाने की कोशिश में अपनी सारी शक्ति लगाई। उन्होंने
कुकरैल पुल जो की लखनऊ पहुँचने का एक मात्र पुल था पर अपने तोपची लगा दिए और भारतीय
क्रांतिकारियों को डराने के लिए झूठ मूठ उन तोपों पर आग सुलगाई रक्खी क्यूंकि गोला
बारूद ख़त्म हो चूका था।
उधर अँगरेज़ सेना के तोपखाने के हिंदुस्तानी सिपाहियों
ने भारतीय सेना में शामिल होना ठीक समझा और अपनी तोपों के चमड़े के पट्टे काट दिए जिससे
घोड़े उन्हें न खींच पाएं। इन तोपों पर बाद में हिंदुस्तानी सेना ने कब्ज़ा कर लिया।
कहा जाता है इसी में से एक तोप के गोले से हेनरी लॉरेंस की रेजीडेंसी में चार दिन बाद
मौत हो गयी।
दिन
के बारह बजे ये ऐतिहासिक युद्ध समाप्त हो चूका था और करीब ३०० ब्रिटिश आर्मी के सैनिक
या तो मर चुके थे या गायब थे यानि आधी सेना समाप्त हो चुकी थी। रेजीडेंसी में एक विजयी सेना का इंतज़ार कर रही अफसरों
की पत्नियां इस तबाही को सुन कर और देख कर न केवल आतंकित थी बल्कि कुछ चीख चिल्ला रही
थी और अपने बच्चों को सीने से लगा कर घुटनो के बल बैठ के प्रार्थना कर रही थी
अँगरेज़
इतिहासकार मानते हैं की खुले युद्ध में अंग्रेज़ों की इतनी ज़बरदस्त हार भारत में कभी
भी नहीं हुई थी। युद्ध के बाद किसी तरह गिरते पड़ते लू और तपते हुए सूरज की तपिश झेलते
हुए अँगरेज़ लगभग रेंगते हुए रेजीडेंसी के पास पहुंचे और उसमे से काफी रेजीडेंसी के
अंदर घुसने से पहले ही मौसम की मार से गिर कर मर गए।
इसके
बाद हिन्दुस्तानियों ने रेजीडेंसी को घेर कर रखा और कई बड़े अँगरेज़ अफसर कभी रेजीडेंसी
के बाहर नहीं निकल पाए, उनकी कब्रें रेजीडेंसी
के अंदर ही बन गयी। बाद में अंग्रेज़ों ने चिनहट की लड़ाई और रेजीडेंसी के घेराव का ज़बरदस्त
बदला लिया और लखनऊ को बर्बाद कर डाला।
तत्कालीन
अँगरेज़ स्त्रियों की डेरी और पत्रों से लगता है की ये युद्ध बहुत ही भयानक था और ३०
जून तो केवल उस यातना का आरम्भ था जो की पूरे १४८ दिन चली और जिसमे कई महत्वपूर्ण अँगरेज़
अफसर मारे गए जैसे हेनरी हेवलॉक और जेम्स जॉर्ज स्मिथ नील
जो शायद जनरल डायर के प्रेरणा स्तोत्र थे और जिनकी हैवानियत को शब्दों में बयान करना
मुश्किल है। ये दोनों ही लखनऊ में चिर निद्रा
में सो रहे हैं।
चिनहट
के युद्ध पर अभी बहुत शोध होना बाकी है लेकिन ये हमेशा भारतियों को अन्याय के प्रति
मिलकर आवाज़ उठाने की प्रेरणा देता रहेगा।
अनुराग कुमार 'अविनाश'
लेखक एक उपन्यासकार हैं और १८५७ के लखनऊ पर दो उपन्यास लिख
चुके हैं ।